Dropping Out, Like The Buddha


Image of the Weekबुद्ध की तरह त्यागना
: जेन ब्रूनेट के द्वारा (30 अप्रैल 2018)

ऐसे युग में जहाँ अति व्यस्त होना सम्मान का विषय और कार्यो को पूरा करना सबसे बड़ा गुण माना जाता हो, जहाँ कुछ कार्यकर्ता मार्टिन लूथर किंग के इस कथन का हवाला देते हुए रैलियों को बढ़ावा देते हैं कि ," बुराई को सफल होने में जिस चीज की ज़रूरत होती है वो है अच्छे लोगों का कुछ भी नहीं करना," मैंने अकल्पनीय कर दिया। मैंने त्याग दिया।

मुझे लड़ना पसंद नहीं था और मैं उदास हो रही थी। एक दिन मुझे समझ आया कि: यदि मुझे शांति चाहिए तो मुझे शत्रु बनाने बंद करने होंगे। इसलिए मैनें त्याग दिया।

मैं अच्छी संगति में हूँ। बुद्ध नें भी सब त्याग दिया था। वे असली हिप्पी थे।

बुद्ध एक राजकुमार थे जिनके पास सब कुछ था: शक्ति, प्रतिष्ठा, धन, कामुक सुख, लेकिन जब अंततः उन्होंने पीड़ा, मृत्यु और अस्थिरता की वास्तविकता का सामना किया, तो दुनिया की ये सारी प्रतिष्ठित चीजें उन्हें महत्त्वहीन लगीं। इसलिए उन्होंने अपने शानदार वस्त्र उतार फेंक दिए और गहन अर्थ की तलाश में जंगल को निकल गए।

मुझे यकीन है कि उनके साम्राज्य में ऐसे लोग थे जिन्होंने उनकी आलोचना की होगी, जिन्होंने सोचा होगा कि उनका सब त्याग देना स्वार्थपुर्ण था। क्या वे एक भटकने वाले योगी के बजाय एक राजा के रूप में ज्यादा अच्छा काम नहीं कर सकते थे? ये कितना बेकार है। लेकिन बुद्ध तो अपने राज्य के लोगों को अस्थायी समृद्धि प्राप्त करने में मदद करने से भी ज्यादा मौलिक किसी चीज की तलाश कर रहे थे। मेरी तरह , वो भी पीड़ा का अंत करना चाहते थे।

इसलिए उन्होंने सब त्याग दिया और भटकने लगे। उन्होंने सत्य की खोज के लिए कई प्रकार की कोशिशें की। वे अपनी खोज में इतने उत्साही थे कि उन्होंने परम तपस्या तक की, कंकाल होने तक उपवास किया, इस उम्मीद में कि ये सब उन्हें अनुभूति तक ले जाएगा। आख़िरकार जब वे भुखमरी के कगार पर थे और बेसुध हो रहे थे तब एक दूधवाली आई और उनसे ज़ाहिर बात बोली "तुम अपने आप को बीमार कर रहे हो। लो थोड़ा दलिया खाओ।"

मुझे आश्चर्य है कि क्या दूधवाली को पता था कि सुपाच्य आहार के उसके सरल प्रस्ताव ने बुद्ध की मुख्य अंतर्दृष्टि का साधन प्रदान किया । शायद वो तुरंत इसके बारे में भूल गई- उसने तो एक अजनबी पर बस थोड़ा सा उपकार किया, फिर अपनी गायों के पास चली गयी। मुझे नहीं लगता कि उसे पर्याप्त श्रेय मिला है। यदि वो दृढ़ता से अपने सोचने के तरीके पर में खड़ी नहीं रहती और विनम्र सत्य को पेश नहीं करती, तो बुद्ध, उच्चतम सत्य की अपनी जिद्दी खोज में, हो सकता है कि एक जिद्दी हिप्पी में परिवर्तित हो जाते, जो कि अपने ही अतिरेक से अपनी जान खो देता है।

लेकिन बुद्ध को कुछ आत्मसन्देह था जो कि हमारे लिए भाग्यशाली रहा। उन्होंने दूधवाली की बात गहनता से सुनी, इस संभावना के साथ कि वो शायद ऐसा कुछ जानती हो जो वह नही जानते। और फिर उन्होंने दलिया खा लिया। ऐसा करने में उन्हें गहन अंतर्दृष्टि हुई जिसके आधार पर उन्होंने 'मध्य मार्ग ' का दर्शन विकसित किया: चरम पर जाने का कोई लाभ नहीं है। बेहतर है कि संतुलन को विकासित किया जाए।

मुझे आत्मसन्देह में मजा नहीं आता, लेकिन मुझे लगता है कि शायद यह एक अच्छी बात है क्योंकि वो इस प्रश्न को जीवित रखती है: मुझे पता है कि शायद मैं गलत भी हो सकती हूँ। यही एक उपलब्धि है, यह विचार करते हुए कि मैं कितना आश्वस्त थी कि मेरा सोचने का तरीका हमेशा नैतिक रूप से सही और सबसे सच्चा था। असल में (अब) मुझे पूरा यकीन है कि गहराई से, हममें से कोई भी वास्तव में यह नहीं जानता कि हम जो कर रहे हैं वह अंततः किसी को मदद करेगा या दुःख पहुँचाएगा। क्या हम यह स्वीकार कर सकते हैं और फिर भी हमारे पास जो भी है उससे अच्छे से अच्छा काम कर सकते हैं?


प्रतिबिंब के लिए कुछ बीज प्रश्न:"बुद्ध की तरह त्यागना" से आपका क्या समझते हैं? क्या आप कोई व्यक्तिगत अनुभव सांझा कर सकते हैं जब आपने शांति की खोज में अपने चरम को छोड़ा हो। संतुलन बनाने में आपको​ क्या मदद करता है?
 

Excerpted from article here.


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