फैलाव अथवा अंतराल के बोध पे ध्यान दें. द्वारा रॉब बरबा
जब भी कोई राग या कोई द्वेष किसी वस्तु के प्रति होता है, जब भी कोई रुकावटें मौजूद होती हैं, उस वक़्त हमारा मन, कुछ कम या ज्यादा मात्रा में ,संकुचित होता है| अगर बोलें तो, हमारा मन उस वक़्त किसी अनुभूति में खिंचा चला गया है, किसी चेतना के विषय में चला गया है, और सकुंचित होकर उसके चारो तरफ़ लिपट गया है| सामान्यतः इस मन में संकुचन को हम एक अप्रिय दुःख के रूप में अनुभव करते हैं | हम इस संकुंचन को देख सकते हैं, इस मानसिक सिकुडन को, बाहरी एवं अंदरूनी संदर्भ में| और ये सामने भी आता है, हमारे शरीर की थकावट जैसे अप्रिय संवेदना के रूप में अथवा भय जैसी एक मुश्किल भावना के रूप में | और हम कभी कभी इसे , रिश्तों में आवेश के रूप में , सामाजिक पृष्ठिभूमि में भी देख सकते हैं |
भावनात्मक रूप से निर्भर मन , किसी अनुभव के चारों तरफ़ संकुचित हो जाता है, और तब ,चूँकि मन सिकुड़ चूका है, हमारे राग या द्वेष का विषय हमारे मन में अपने अनुपात से कहीं अधिक जगह घेर लेता है |तब वह किसी प्रकार से विशाल दिखने लगता है और ठोस भी, उसका आकार और उसकी नज़र आती ठोसता , दोनों ही हमारे मन के सिकुडन के अनुसार बड़ी नज़र आने लगती हैं| जब वह विषय बड़ा एवं ज्यादा ठोस नज़र आने लगता है, और चूँकि उस सिकुडन का अनुभव कुछ अंश तक पीड़ादायक होता है, तब हमारा मन , उस क्षण को समझ पाने के अभाव में नासमझ प्रतिक्रिया करने लगता है| अनजाने में ही, वो उस स्थिति से बाहर आने की कोशिश में ,राग और द्वेष को और ज़ोर से पकड़ लेता है, और वो उन्हीं में ही अटक जाता है या स्थिति को और ख़राब कर लेता है| दुर्भाग्य से ये बढ़ा हुआ राग , मन को सिकुड़ा हुआ ही रखता है , या उसे और सिकुड़ा हुआ बना देता है| उससे वह विषय , उसकी धारणा और बड़ी बन जाती है, ज्यादा ठोस बन जाती है, और एक भयावह चक्र बन जाता है और मन उसी में उलझ जाता है|
जब हमारी जागरूकता नासमझ तरीके से उलझ गई होती है, उस वक़्त यह काफी मददगार होता है कि हम जान बूझ कर फैलाव अथवा अंतराल के बोध पर अपना ध्यान लगायें |ये कई प्रकार से किया जा सकता है: अपनी जागरूकता को आने और जाने वाली ध्वनियों की संपूर्णता पे खोलें, , अपनी द्रष्टि के छेत्र को विस्तृत करें, जो भी विषय हैं उनके बीच और उनके चारों ओर के फैलाव को जान बूझ कर देखें, और किसी कमरे या स्थिति के फैलाव को देखें | अंतराल पूर्वक देखना हमारी अनुभूतियों को खोलता है, और उस भयावह चक्र को भंग करता है| यहाँ तक कि बाहरी प्राकृतिक फैलाव की ओर ध्यान देने से भी मन को खुलने एवं उसकी सिकुडन मिटने में मदद मिलती है, एवं इससे अंदरूनी अनुभव यानि शारीरिक असहजता एवं मुश्किल भावना के इर्दगिर्द एक फैलाव का एहसास बन सकता है|
अंतराल /फैलाव कोई खालीपन नहीं है , और खालीपन किसी प्रकार का अंतराल /फैलाव नहीं है|बल्कि , हमारी खोज सिर्फ इस बात की है कि हमारा मन कैसे किसी अनुभव को ठोसता प्रदान करता है और पीड़ा का निर्माण करता है, उन्हीं रास्तों के माध्यम से जिनसे हमारा नाता है है, जिन्हें हम देखते एवं जिनसे हम चीज़ों को अपनाते हैं| हम धीरे धीरे पीड़ा की उलझन को सुलझाना सीखते हैं|और फिर जैसे ही हमारे देखने के दृष्टिकोण में संकल्पित बदलाव आता है, और जितना हम ज्यादा उसे प्रयोग में लाते हैं, उतना ही वो सुगम हो जाता है| हम जितना ज्यादा मन को अंतराल अथवा फैलाव को देखने का अभ्यास कराते हैं, उतना ही आसान हो जाता है हमारे आभास के अंतराल को खोलना और कुछ राहत का अनुभव करना|
मनन के लिए बीज प्रश्न: इस धारणा से आप कैसा नाता रखते हैं कि राग के विषय उस अनुपात में ही मन में फैलाव लेते हैं जितना हमारे राग का स्तर है? क्या आप उस समय की निजी कहानी साझा कर सकते हैं, जब आपके फैलाव/अंतराल को ध्यान देने से आपके आभास खुल गये और उसने आपकी कृत्रिम ठोसता को भंग करने में मदद की? आपको अपने मन को फैलाव/अंतराल की ओर मोड़ने में किस चीज़ से मदद मिलती है?
On Jun 27, 2022 Gururaj wrote :
In many situations we may need to respond quickly and this holding back may not be practical. But there are many other situations where i can chose not to act from reaction
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