इन्द्रियों के भोग की गुलामी , द्वारा स्वामी विवेकानंद
हम अपने इन्द्रियों के भोग के गुलाम हैं , अपने मन के गुलाम हैं, चेतन एवं अवचेतन | एक अपराधी, अपराधी इसलिए नहीं है क्योंकि वो अपराध करना चाहता है, पर इसलिए है क्योंकि उसका मन उसके वश में नहीं है, इसलिए क्योंकि वो अपने चेतन एवं अवचेतन मन का गुलाम है, और अन्य के मन का भी गुलाम है|उसे अपने मन पर उस वक़्त की हावी इच्छा को ही निभाना पड़ता है, वो कुछ नहीं कर सकता | उसे अपने आप के बावजूद उसे करना पड़ता है, अपनी अच्छी अंदरूनी सलाह के बावजूद उसे करना पड़ता है, अपने अच्छे स्वाभाव के बावजूद उसे करना पड़ता है| | उसे मजबूरन अपने मन की उस वक़्त की प्रबल इच्छा का पालन करना पड़ता है| बेचारा , वो अपनी सहायता भी खुद नहीं कर सकता|
हम निरंतर अपने जीवन मैं ऐसा ही देखते हैं |हम निरंतर अपने अच्छे स्वाभाव के विपरीत ऐसी चीज़ें करते हैं, और बाद में हम उसका पछतावा भी करते हैं, और यह सोचते भी हैं हमने उसे किस वजह से किया, हम उस वक़्त क्या सोच रहे थे| फिर भी , हर बार हम ऐसा ही कर रहे होते हैं और अपने किये का पछतावा भी कर रहे होते हैं औरे अफ़सोस भी कर रहे होते हैं| उस वक़्त हमें ऐसा ही लगता है की वो करना हमारी इच्छा है, पर ये हमारी इच्छा भी इसलिए लगती है क्योंकि मजबूरन हमारी इच्छा सामने आई दिखती है| हमें आगे मजबूरी में बढ़ना पड़ता है, हम मजबूर होते हैं, उस वक़्त हम अच्छे हैं या बुरे हैं , इससे कोई फर्क नहीं पड़ता| हमें उधर उधर खींच कर ले जाया जाता है, और हम अपनी कोई सहायता नहीं कर सकते| हमें लगता हो हम ही ने ये किया है| पर ऐसा नहीं है| हम सोचते हैं क्योंकि सोचना पड़ता है| हम करते हैं क्योंकि करना पड़ता है| हम अपने मन के गुलाम हैं औए अन्य के भी|
हमारे अवचेतन मन की गहराईयां , वो जो एक गहन समुन्दर जैसा विषयक मन हैं, में ही हमारे पुराने संस्कार एवं कर्म बसते हैं| इनमे से प्रत्येक इस कोशिश में है कि वे पहचाने जाएँ, बाहर आकर प्रकट हो पायें , हिल्लोरे मारते ,लहर दर लहर , हमारे चेतन मन पे , हमारे विशयाश्रित मन पे| ये विचारों की श्रंखला , ये जमा की हुई उर्जा है, जिसे हम साधारण तृष्णा, योग्यता , इत्यादि की संज्ञा देते हैं| पर ये हम इसलिए देते हैं क्योंकि हमें उनके वास्तविक स्तोत्र की पहचान नहीं है | हम उनका अनुसरण बिना सोचे समझे करते हैं, बिना किसी शंका के करते हैं, और गुलामी, एक गहन, बेबस गुलामी, इसका नतीजा होती है, और फिर भी हम अपने आपको स्वतंत्र कहते हैं| हाँ स्वतंत्र ! हम जो एक क्षण के लिए भी अपने मन पर काबू नहीं रख सकते, हम जो एक क्षण के लिए अपने मन को एक विषय पर नहीं रख सकते, एक क्षण के लिए भी उसका ध्यान सिर्फ एक ही विषय, यानि अन्य सभी विषयों को छोड़ते हुए, नहीं रख सकते : फिर भी हम अपने आपको स्वतंत्र कहते हैं| जरा सोचिये | हम थोड़े समय के लिए भी वो नहीं कर सकते , जो हम सोचते हैं हमें करना चाहिए | कुछ ही क्षणों में एक विषय तृष्णा सामने आ जाती है और हम उसके पालन में लग जाते हैं हमारा अंतःकरण इस कमजोरी के लिए हमें धिक्कारता भी है , पर हम ये बार बार करते है, और हम ऐसा करते ही रहते हैं| हम एक उच्च स्तरीय जीवन नहीं जी पते, चाहे हम कितनी भी कोशिश करलें| हमारे पुराने संस्कार , हमारे पुराने जीवन के प्रारब्ध हमें जकड़े रखते हैं |
इस विश्व की समस्त आपदाएं , क्लेश हमारी इन इन्द्रियों की गुलामी की ही देन हैं| हमारी इन्द्रियों के विषयों से ऊपर उठने में असमर्थता , हमारी दैहिक सुख एवं भोग की चाहत , ही इस विश्व की समस्त आपदाओं एवं दहशत का कारण है|हमारा बेकाबू मन , हमारा अनियंत्रित मन, हमें नीचे की ओर ही ले जायेगा , और पूरे जीवन को वहीँ रखेगा , टुकड़े टुकड़े कर देगा: और हमारा नियंत्रित मन , हमारे काबू का मन, हमें बचाएगा, स्वतंत्र कर देगा|
मनन के लिए मूल प्रश्न : आप इस बाध्यकारी ( Compulsive thoughts) विचारों की श्रंखला एवं बाध्यकारी ( compulsive action ) क्रियाशीलता की धारणा को, किस प्रकार से देखते हैं? क्या आप एक ऐसे समय की कहानी साझा कर सकते हैं जब आपने अपने विचारों की श्रंखला एवं इन्द्रियों की गुलामी से ऊपर उठ कर कार्य किया हो? आपको विचारों की श्रंखला एवं इन्द्रिय भोग से आगे एक विवेकपूर्ण जीवन विकसित में किस चीज़ से सहायता मिलती है|