The False Dichotomy Between Being And Doing

Author
Rob Burbea
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Image of the Weekकर्म एवं अस्तित्व के मध्य झूठा द्वैतवाद
द्वारा रॉब बुरबा


हम मानते हैं कि “ हमारा होना (अस्तित्व) “ और “ हमारे कर्म “ भिन्न हैं| सर्वदा “ सिर्फ होना “ ही बेहतर और अधिक अभिप्रमाणित माना जाता है| जैसे जैसे हमारी अंतर्दृष्टि विकसित होती है, हम महसूस करने लगते हैं कि यह कथित द्वैतवाद , जो शुरुआत में स्पष्ट दीखता और महसूस होता है, वास्तव में गलत है, और एक अवास्तविक नजरिये पर आधारित है|

यह मुख्यतः तीन आधारभूत रिश्तों कि पूर्व धारणाओं पर टिका है : (1) यह कि एक बाहरी सत्य है , जिसके साथ हम “ हो “ सकते हैं, और “ होना “ ही चाहिए . (2) यह कि , कोई भी अन्य अवस्था जो “सामान्य अंतर्ज्ञान “की जागरूकता से भिन्न है वो एक अस्वाभाविक और अप्राकृतिक अवस्था है (3) “ होने “ में कोई प्रयास नहीं है और वहां पे आत्मनिर्माण नहीं होगा |

हालाँकि ऐसा सामने आता है, जब भी “ शायद कोई अनुभव “ होता है, वहां पे कुछ ना कुछ मन गढ़ित होता है , जो एक प्रकार का “ कर्म” है| ज्यादातर हम “जैसा प्रतीत होता है” के आधार पे “होते” हैं और वह परावर्तन एक “ वास्तविकता में, जो है, “ उसका अपने आप ही, by default, पूर्व धारणा बन जाता है|चूँकि हमारा अनुभव इस दिशा में सीमित है जहाँ हम यह देख सकें हम कैसे अपनी अनुभूति गढ़ लेते हैं, हमारे लिए इस निहित धारणा से ऊपर उठना मुश्किल हो जाता है कि सभी चीज़ें ऐसी हैं जैसी प्रतीत होती हैं, ना कि ऐसी हैं जैसी वास्तव में “ हैं” , जो स्वयं “ हैं “ अपने आप में सत्य “ हैं”| हमारे लिए यह मानना भी मुश्किल हो जाता कि हमरी पूर्व धारणाएं होती हैं| यह प्रतीत होता है कि उन सब चीज़ों के साथ “ होना “ जैसे वो नज़र आती हैं, निस्संदेह हर प्रकार के विचार एवं धारणाओं को सम्मिलित करता है, ज्यादातर ना पहचानने योग्य, जो कथित रूप से घट रहा है|

वस्तूओं को देखने के जानकार तरीकों की निरंतर पहचान भी इस कथित समझ पे टिकी है कि हम सदैव एवं अपरिहार्य रूप से, अपने अनुभवों को देखने और उनसे नाता बनाने में लगे होते हैं| पर हम इस सच्चाई से ज्यादातर अनभिज्ञ हैं| ना हीं हम इस बात से भी अवगत हैं कि हम किसी भी समय , कैसे देख रहे है- वास्तव में कैसा दृश्य है | या तो हम एक प्रकार से जीवन को देखने मैं लगे हैं , अपने अनुभवों को, अपने स्वयं को, एवं दुनिया को, जो निरंतर पीड़ा को को किसी हद तक सृजित , अवरित, एवं संयुक्तीकरण करती है, या इस प्रकार देखने में लगे हैं जो विमुक्त करता है|ये जो आदतन एवं सामान्य प्रवृतियाँ हैं, चीज़ों को उस तरह से देखने की, जो पीड़ा को गढ़ती हैं, सयुक्ताकरण करती हैं, गहराती है, हम में बहुत ही गहरी हैं, एवं उन्हें वापस लाना मुश्किल है | फिरभी , निसंदेह , ये उस राह का महान एवं खूबसूरत कार्य है|

मनन के लिए बीज प्रश्न; आप इस बात से कैसे नाता रखते हैं कि “ जब भी कोई अनुभव होता है ", उसमे सदैव कुछ मन घडित होता है , जो एक प्रकार का कर्म है? क्या आप कोई ऐसी निजी कहानी साझा कर सकते हैं जब आपने पाया हो कि “होने “ और कर्म का द्विभाजन एक असत्य है? आपको इस प्रकार से देखने में जो आपको मुक्त करता हो, किस चीज़ से मदद मिलती है ?
 

Excerpt from the book 'Seeing That Frees'.


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