A Scheme to Change the World?

Author
Hazrat Inayat Khan
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Image of the Weekविश्व को बदलने की एक योजना?
-- हज़रत इनायत खान (१ मार्च, २०१७)

एक दिन मैंने पेरिस में लेक्चर दिया और मेरे लेक्चर के बाद एक बहुत ही सक्षम आदमी मेरे पास आया और बोला, 'क्या आप के पास कोई योजना है?’ मैंने कहा, ‘कैसी योजना?’ ‘परिस्थितियों को बेहतर करने की।'

मैंने जवाब दिया कि मैंने ऐसी कोई योजना नहीं बनाई है, और उसने कहा, 'मेरे पास एक योजना है, मैं आपको दिखाऊंगा।’ उसने अपना बक्सा खोला और उसमें से बहुत बड़ा कागज़ निकाला जिस पर कोई गणित था और मुझे दिखाते हुए कहा, ‘'यह वो आर्थिक योजना है जो कि दुनिया की परिस्थिति को बेहतर कर देगी: सबके पास बराबर हिस्सा होगा।’

मैंने कहा, 'हमें इस आर्थिक योजना को पहले अपने पियानो की ट्यूनिंग पर इस्तेमाल करना चाहिए: डी, ई, ऍफ़, कहने की बजाए, हमें सबको एक ही सुर पर ट्यून कर देना चाहिए और कुछ बजाना चाहिए और देखें कि वो कितना दिलचस्प होगा - सभी एक से सुनाई दें, कोई व्यक्तित्व नहीं, कोई अंतर नहीं, कुछ नहीं।' और फ़िर मैंने कहा, 'अर्थव्यवस्था निर्माण की एक योजना नहीं है, लेकिन यह विनाश की एक योजना है। अर्थशास्त्र ही है जो हमें विनाश की तरफ़ ले गया है। यह मन की गुणवत्ता हैं, यह आध्यात्मिक दृष्टिकोण है जो दुनिया को बदलेगा।

बहुत बार मुझे सुनने के लिए आने वाले लोगों का बाद में कहना है कि, 'हाँ, आप जो सब कह रहे हैं वो बहुत दिलचस्प है, बहुत सुंदर है, और मैं भी चाहता हूँ कि दुनिया बदल जाए। लेकिन कितने लोग आप की तरह सोचते हैं? आप यह कैसे कर सकते हैं? यह कैसे किया जा सकता है?'

वे इस निराशावादी टिप्पणी के साथ आते हैं, और मैं उन्हें कहता हूँ, 'एक व्यक्ति एक देश में ज़रा सी ठंड या इन्फ्लूएंजा के साथ आता है और वह फैल जाता है। अगर ऐसी बुरी चीज़ फैल सकती है, तो क्या सभी मनुष्यों के प्रति प्रेम, दया और सद्भावना की ऊंची सोच नहीं फैल सकती? फिर देखो कि यहां और भी अधिक महीन रोगाणु हैं, सद्भावना के कीटाणु, प्रेम, दया, और अनुभव के कीटाणु, भाईचारे के रोगाणु, आध्यात्मिक विकास की इच्छा के रोगाणु, जिनके दूसरे रोगाणुओं की तुलना में कहीं अधिक परिणाम हो सकते हैं। अगर हम सब ऐसा आशावादी दृष्टिकोण रखते है, अगर हम सब अपने छोटे से तरीके से काम करते हैं, तो हम बहुत कुछ कर सकते हैं।’

कई लोग ईश्वर से इस बात पर नाराज़ रहे हैं कि उन्होंने उनके जीवन में कोई भी दुःख भेजा है -- लेकिन हमें हमेशा इस तरह के अनुभव मिलते हैं! नाराज़ होकर हम कहते हैं, 'क्यों, पर यह न्यायोचित नहीं है', या 'यह सही नहीं है', और ' जो भगवान न्यायवान और अच्छे हैं वो अन्यायपूर्ण चीजों को कैसे होने दे सकते हैं?’ लेकिन हमारी दृष्टि इतनी सीमित है कि सही और गलत और अच्छाई और बुराई के बारे में हमारी धारणा केवल अपने लिए है --ईश्वर की योजना के अनुसार नहीं। यह सच है कि, जब तक हम इसे ऐसे ही देखते हैं, यह हमारे लिए और जो दूसरे भी इसे हमारे दृष्टिकोण से देखते हैं,उनके लिए सच है, लेकिन जब यह भगवान की बात आती है तो पूरी बात बदल जाती है, देखने का सारा नज़रिया ही बदल जाता है।

सूफी इसलिए, जीवन के संकट से बाहर निकलने का एक ही रास्ता पाते हैं ... वो उससे ऊपर उठ जाते हैं, सभी चीज़ों को धैर्यपूर्वक, जैसे वो उठती हैं, उन्हें उसी रूप में लेते हुए। उनके साथ कैसा बर्ताव किया जाता है, वो उसका कुछ बुरा नहीं मानते। उनका सिद्धांत है जो हो सके वो करना, और उसी में उनकी संतुष्टि है। किसी अन्य व्यक्ति पर इस बात के लिए निर्भर हुए बिना कि वो उनसे अच्छा बर्ताव करे, सूफी सोचते हैं कि अगर वह किसी अन्य व्यक्ति के साथ अच्छा बर्ताव करते हैं, वही पर्याप्त है। जीवन के लंबे समय में हर बुद्धिमान आदमी इस सिद्धांत में खुशी का समाधान पाएगा। क्योंकि हम दुनिया को बदल नहीं सकते, लेकिन हम खुद को बदल सकते हैं।

विचार के लिए कुछ मूल प्रश्न: आप संगीत के उदाहरण को अर्थशास्त्र पर लागू करने से क्या समझते हैं? क्या आप संक्रामक सद्भावना से सम्बंधित कोई व्यक्तिगत अनुभव बाँट सकते हैं? बिना इस बात की परवाह किये कि आपके साथ कैसा बर्ताव किया जा रहा है, अपनी तरफ से पूरी कोशिश करके अच्छा काम करने में आपको किस चीज़ से मदद मिलती है?

"संघ द्वितीय, पूर्णता के पथ पर" के कुछ अंश।
 

Excerpted from "Sangatha II, Path To Perfection" (more here and here).


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