The Reality of the Illusory World

Author
Rupert Spira
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Image of the Weekमायिक दुनिया की वास्तविकता
-- रूपर्ट स्पिरा (११ फ़रवरी, २०१५)

करीब सौ साल पहले पॉल सेज़ान नामक चित्रकार बे कहा था, " एक ऐसा समय आने वाला है कि जब एक गाजर को “नए सिरे से देखने” से एक क्रांति की शुरूआत हो जाएगी।” सेज़ान के कहने का अर्थ था कि अगर हम गाजर जैसी किसी आम चीज़ को ऐसे देख पाएं जैसी वो असल में है तो हमारे अनुभव में क्रांतिकारी परिवर्तन आ जाएगा। लेकिन किसी वस्तु को जैसी वो है उसे वैसे ही देखने का क्या अर्थ है? यहां इस कथन में मुख्य चीज़ है, “ नए सिरे से देखना,” जिसका अर्थ है साफ़-साफ़ देखना, यानि ऐसे सिद्धांतों के पीछे छिपे बिना जब विचार हमारे अनुभव पर परतें जमा देते हैं। वास्तव में, हम में से ज्यादातर लोग इस बात से बिलकुल अनजान हैं कि हमारे अनुभव ऐसी सैद्धांतिक सोच की महीन जाली में से छन रहे हैं जिसकी वजह से वे असलियत से बहुत अलग नज़र आते हैं।

जैसा कि कुछ 1200 साल पहले, चीनी संत हुआंग पो ने कहा कि, "लोग मायिक दुनिया की वास्तविकता को नज़रअंदाज़ कर देते हैं।" मायिक दुनिया? अब यह तो सेज़ान से भी अधिक असामान्य बात कही! एक गाजर, कुदाल, घर, या दुनिया को नए तरीके से देखना एक बात है, लेकिन इसे माया समझना एकदम अलग बात है। उनका यह कहने का क्या मतलब था?

हम अक्सर अद्वैतवादी सिद्धांतों में ऐसे कथन सुनते हैं कि, “यह संसार एक माया है।” लेकिन ऐसे कथन हमारे अंदर एक द्वंद्व खड़ा कर सकते हैं, क्योंकि हम जानते हैं कि हमारे अनुभव बिलकुल वास्तविक हैं। तो हम इन दोनों मतों का मेल कैसे करें - पहला, “ मायिक संसार” और दूसरा, हमारे अनुभव की वास्तविकता जिसे हम नकार नहीं सकते?

जो कुछ दिखाई देता है वो किसी चीज़ में या किसी चीज़ पर दिखेगा। उदाहरण के लिए, एक छवि एक परदे पर दिखाई देती है; एक कुर्सी किसी कमरे में जो जगह है उसमें दिखाए देती है; एक उपन्यास के शब्द उसके पन्नों पर दिखाई देते हैं; एक बादल आकाश में दिखाई देता है। और हमारा मन, शरीर और दुनिया कहाँ दिखते हैं? मात्र उनके अनुभव ही अभी तक हमारे विचारों, चित्रों, भावनाओं, अहसासों, दृष्टियों, आवाज़ों, बनावटों, स्वादों और महकों के रूप में प्रकट होते हैं। दूसरे शब्दों में, हम मन, शरीर या दुनिया के बारे में सिर्फ उतना ही जानते जो दिखाई देता है, और ये सब लगातार आता जाता रहता है। हमें भले ही यह धारणा है कि मन, शरीर और दुनिया हमेशा मौजूद रहते हैं, लेकिन हम वास्तव में ऐसी किसी चीज़ का अनुभव कभी नहीं करते ।

सभी अनुभव हमारे मन में जन्म लेते हैं, इस साफ़ शून्य में। और जो एकलौती ची,ज़” हमारे अंदर मौजूद है, जिससे सारे अनुभव बन सकते हैं, वो हम खुद ही हैं। यह हमारा सीधा और निजी अनुभव ही है, जिसकी वजह से हम मन, शरीर और दुनिया के बारे में जो भी जानते हैं, वो हमारी आत्मा की निर्मलता से बना है और एकदम उसके जैसा ही है।

जैसे कि जिस परदे पर कोई चित्र दिखाई देता है, उसे हम चित्र पर पूरा ध्यान होने की वजह से नज़रअंदाज़ कर देते हैं, उसी तरह हम अपनी आत्मा की खुली, साफ़ और निर्मल मौज़ूदकी को अनदेखा कर देते हैं क्योंकि हमारा पूरा ध्यान हमारे मन, शरीर और दुनिया के विषयों में लगा है - यानी विचारों, भावनाओं, उत्तेजनाओं और धारणाओं पर। जैसे बिना परदे को देखे किसी चित्र को देख पाना संभव नहीं है, उसी तरह हालाँकि इस उपस्थिति को हम ज़्यादातर अनदेखा कर देते हैं, फिरभी यह कभी भी पूरी तरह से अज्ञात नहीं है।

जब वो ‘दूसरा” “दूसरे” की तरह प्रतीत नहीं होता, जब विषय/वस्तु में अंतर समाप्त हो जाता है, हम उस अनुभव को प्यार का नाम देते हैं। यह एक छवि की उपस्थिति को देखना, लेकिन उसे सिर्फ एक परदे की तरह जान पाना है। यह परदे को उस चित्र की सच्चाई बनाने का एक तरीका है। यह हर इंसान और हर चीज़ को अपनी तरह जान पाना है।

विचार के लिए मूल प्रश्न: "मायिक दुनिया की वास्तविकता" से आप क्या समझते हैं? क्या आप अपना कोई व्यक्तिगत अनुभव बांटना चाहेंगे जब आपके लिए विषय/वस्तु में अंतर समाप्त हो गया हो? आप इस मायिक दुनिया से मुक्त हुए बिना इसकी सच्चाई से अवगत कैसे रह पाते हैं?

बहुत कम उम्र से रूपर्ट स्पिरा की वास्तविकता की प्रकृति में गहरी रुचि थी। वे बीस वर्ष पहले जब तक अपने गुरु फ्रांसिस लुसील से नहीं मिले, उन्होंने बारह साल ऊस्पेंस्की, कृष्णमूर्ति, रूमी, शंकराचार्य, रमण महर्षि, निसर्गदत्त और रॉबर्ट एडम्स की शिक्षाओं का अध्ययन किया। फ्रांसिस ने रूपर्ट को जीन क्लाइन, पारमेनीड्स, वी वू वी और आत्मानंद कृष्णमेनन की शिक्षाओं से परिचित कराया और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि उन्हें सीधे असली अनुभव की राह दिखाई।
 

From an early age Rupert Spira was deeply interested in the nature of Reality. For twenty years he studied the teachings of Ouspensky, Krishnamurti, Rumi, Shankaracharya, Ramana Maharshi, Nisargadatta and Robert Adams, until he met his teacher, Francis Lucille, twelve years ago. Francis introduced Rupert to the teaching of Jean Klein, Parmenides, Wei Wu Wei and Atmananda Krishnamenon and, more importantly, directly indicated to him the true nature of experience.  Full article here.


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