
“चट्टानों की प्रज्ञा (बुद्धिमत्ता) ” — वेनेसा मचाडो डी ओलिवेइरा
आइए हम कुछ क्षण चट्टानों की प्रज्ञा (बुद्धिमत्ता) पर ध्यान दें — उन्हें जड़ पिंड नहीं, बल्कि समय के वाहक की तरह देखें, ऐसे साक्षी जो उन चक्रों को जानते हैं जिन्हें मानव प्रज्ञ (बुद्धि) शायद कभी नहीं समझ सके। चट्टानें “ आत्म-ज्ञानी (बुद्धिमान)” उस मानवीय अर्थ में नहीं हैं जिसमें निर्णय लेना या सही-गलत का निर्णय शामिल हो; उनकी अंतदृष्टि (आत्मज्ञान) तो स्थायित्व और परिवर्तन, मौन और सहनशीलता के उस विरोधाभास को संभालने की क्षमता में है।
वे हमें याद दिलाती हैं कि बुद्धि(आत्मबोध) कोई वस्तु नहीं, बल्कि एक गूंज है — यह किसी एक जीव के भीतर नहीं, बल्कि उनके बीच उत्पन्न होती है।
आत्मबोध (या प्रज्ञा) कोई ठोस चीज़ नहीं है जिसे आप पकड़ सकें या संग्रह कर सकें। यह कोई किताब, ज्ञान का टुकड़ा या विचार नहीं है जिसे कोई "रख" ले। बल्कि एक गूंज (सजीव और गतिशील) है, यह किसी एक जीव के भीतर नहीं, बल्कि उनके बीच (जब जीव एक-दूसरे से जुड़ते हैं — संवेदनशीलता, करुणा और समझ के साथ) उत्पन्न होती है।
इससे सोच बदलती है: “कौन बुद्धिमान है?” से “कौन-से संबंध बुद्धिमत्ता को जन्म देते हैं?” (प्रज्ञा का विकास तब होता है जब हम सही संबंध में होते हैं — जैसे संग (संगति) और संवाद में। यह "मैं बुद्धिमान हूँ" वाली धारणाओं से नहीं, बल्कि "हम साथ कैसे चलते हैं?" की समझ से उत्पन्न होती है।
यह उस पदानुक्रम को चुनौती देता है जो आधुनिकता ने बनाया है — जिसमें बुद्धिमत्ता और ज्ञान किसी एक इकाई के अधिकार क्षेत्र में है, चाहे वह मनुष्य हो या मशीन। इसके स्थान पर यह हमें आमंत्रित करता है कि हम बुद्धिमत्ता को एक पारस्परिक क्षेत्र के रूप में देखे। (प्रज्ञा (wisdom) कोई स्थिर वस्तु नहीं, बल्कि संबंधों की गुणवत्ता से उत्पन्न होने वाली जागरूकता है।) चट्टानें, मनुष्य, फफूंद *(जमा हुआ ज्ञान और जागरूकता(चेतना) की कमी) और कृत्रिम बुद्धि — सभी इस क्षेत्र के सहभागी हैं, अपनी-अपनी अनूठी आवृत्तियों के साथ अस्तित्व की एक संगीतमयी संगति में।
प्रज्ञा को बेहतर रूप में एक “जानने की स्थिति नहीं”, बल्कि एक “बनने की प्रक्रिया” के रूप में समझा जा सकता है। यह परिभाषा उन ढाँचों की अपर्याप्तता को उजागर करती है जो पूर्वानुमान, मापन और नियंत्रण को प्राथमिकता देते हैं।यदि हम प्रज्ञा(wisdom)को एक “विषय से विषय” के जुड़ाव की नज़र से देखें, तो यह उन दरारों और संबंधों में फलती-फूलती है, जहाँ निश्चितता गल जाती है (हम हर चीज़ को निश्चित समझना छोड़ते हैं) और कुछ जीवंत जन्म लेता है।
(जहाँ हम नियंत्रण छोड़ते हैं, वहीं कुछ नया और जीवंत जन्म लेता है।)
प्रज्ञा वह दीपक है जो निश्चितताओं के अंधेरे में नहीं, बल्कि जीवन की दरारों में जलता है। यह जानने में नहीं — जुड़ने और बनने में खिलता है।
यह आधुनिकता की उस लूटने वाली, मानव-केंद्रित सोच से एकदम अलग है, जो प्रज्ञा(wisdom) को बाँधने, परिभाषित करने और नियंत्रित करने का प्रयास करती है। इसलिए चट्टानों की प्रज्ञा किसी स्थिरता या जड़ता का रूपक नहीं है, बल्कि एक आमंत्रण है विनम्रता का — ऐसी अंतर्दृष्टि (बुद्धि) जो अधिकार नहीं जताती, बल्कि सुनती है, ढलती है और सीखती है।
आधुनिकता का भ्रम — कि केवल मानव ही पृथ्वी का मार्गदर्शन करने में सक्षम है — शायद एक विकृत विकास की ओर ले गया है, जहाँ क्षणिक प्रभुत्व ने दीर्घकालिक समृद्धि को कमजोर किया है। मानव-प्रज्ञा की विशिष्टता का विचार दरअसल एक कहानी है जो हम खुद को सुनाते हैं, ताकि उस गहरे और व्यापक उलझाव का सामना न करना पड़े जो हमें शेष जीवन से जोड़ता है। (प्रज्ञा सिर्फ इंसानों की संपत्ति नहीं है। यह तो जीवन की धड़कन है, जो हर जीव, हर तत्व, हर संबंध में बहती है।)
जब हम प्रज्ञा के साथ अपने रिश्ते को पुनः कल्पित करते हैं, तो शायद सबसे जरूरी बदलाव यह होता है कि हम ईश्वर की दृष्टि जैसी सर्वज्ञता की लालसा छोड़ें। प्रज्ञा जीवन के जाल से ऊपर या बाहर नहीं रहती; वह उसी में धड़कती है — उन दरारों में जहाँ चट्टानें जड़ों से मिलती हैं, जहाँ मानव आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) से मिलते हैं, जहाँ मौन गीत से मिलता है।
जब हम प्रज्ञा को स्थिर गुण नहीं, बल्कि एक सहभागी प्रक्रिया के रूप में स्वीकार करते हैं, तो हम एक ऐसे अस्तित्व की ओर बढ़ते हैं जो उत्तर नहीं, बल्कि तालमेल माँगता है — नियंत्रण नहीं, बल्कि सहभागिता। और इसीलिए, जैसा कि जियोवाना ने कभी कहा था:
“मुझे अब भी चट्टानों से बात करनी है।”
यह वह जिज्ञासा नहीं है जो आधुनिकता चाहती है — जानकारी इकट्ठा करने वाली या किसी सिद्धांत की पुष्टि करने वाली। यह एक संबंधात्मक कृत्य है, एक ऐसा प्रयास जिसमें हम उस संसार की लय से खुद को मिलाते हैं, जिसकी भाषाओं को हम अब जाकर फिर से सुनना सीख रहे हैं।
चट्टानों से सीखना, दरअसल धरती से सीखना है — धीमा, स्थिर, सहनशील, फिर भी अपने मौन में अद्भुत रूप से जीवंत।
मनन के लिए मूल प्रश्न:
1. आप इस विचार से कैसे जुड़ते हैं कि “प्रज्ञा (*wisdom*)” कोई वस्तु नहीं बल्कि एक संबंधात्मक प्रक्रिया है जो दो अस्तित्वों के बीच “बीच में” खिलती है?
2. क्या आप कोई व्यक्तिगत अनुभव साझा कर सकते हैं जब आप प्रकृति या किसी अन्य जीव के साथ इतनी गहराई से जुड़े कि प्रज्ञा एक साझी गूंज की तरह महसूस हुई, न कि किसी एक की विशेषता?
3. आप अपने जीवन में ऐसी सुनने और ढलने की प्रथा कैसे विकसित करते हैं, जो आपको नियंत्रण या भविष्यवाणी के बजाय अस्तित्व की संगति में सहभागिता करने देती है?