
“DIY भक्ति क्यों काम नहीं करती”
सुमित नागर के द्वारा
हम अब साधक नहीं रहे — हम तो बस खरीदार बन गए हैं। ज़रूरी नहीं कि हमेशा कुछ ख़रीद ही रहे हों, शायद कई बार सिर्फ़ ‘विंडो शॉपिंग’ ( दुकानों के शो विंडो में लगे सामान को देखना) ही कर रहे होते हैं।
आज के दौर में ध्यान देने की क्षमता इतनी ही रह गई है कि बस एक TikTok वीडियो देख सकें। प्रतिबद्धता (ज़िम्मेदारी) को अब मिनटों में मापा जाता है। हमने पवित्रता को एक सैंपल प्लेट बना दिया है। आध्यात्म अब एक अजीब सा बुफे बन गया है—थोड़ा सा माइंडफुलनेस, थोड़े से मंत्र, थोड़ी मनोविज्ञान की चटनी, थोड़ा ज्योतिष का तड़का—और हम उसे आध्यात्म कह देते हैं। उसमें थोड़ा ज़ेन, एक चम्मच कृष्ण, एक झोंका यीशु, ऊपर से रूमी की फुहार और साइड में “मैंने The Secret पढ़ी थी कभी।” लो जी, यही है हमारी “अपनी आध्यात्मिक राह।”
असल में यह सब आध्यात्मिक फास्ट फूड की तरह है—सुविधाजनक, तेज़, आरामदायक... पर पोषकता से बिल्कुल रहित। आज के समय में आस्था ब्रांड बन गई है, भक्ति डिजिटल हो गई है, और मुक्ति अब सब्सक्राइबर काउंट पर निर्भर हो गई है। पवित्रता ने अपनी गंभीरता खो दी है।
हम अब समर्पण नहीं करते—हम चयन(choice) करते हैं। हम अब अभ्यास नहीं करते—हम उसे अपनी सुविधा के अनुसार ढाल लेते हैं। और ऐसा करके हम सत्य के अंग काट देते हैं और उसके स्थान पर सुविधा के कृत्रिम अंग लगाकर घूमते हैं। यह प्रगति नहीं, यह एक चमकदार भ्रम है। हमने आध्यात्म का एक बिखरा हुआ, उलझा और बाज़ारीकरण से भरा जाल बना दिया है।
हमने मुक्ति को आलस्य समझ लिया है और अनुशासन को रूढ़िवाद। वह प्राचीन ज्ञान जो आत्मा को जागृत करने के लिए था, उसे हमने वीकेंड रिट्रीट्स, सेल्फ-हेल्प की भाषा और इंस्टाग्राम की सुंदरता में लपेट दिया है।
आध्यात्म एक भट्टी है, सुगंधित मोमबत्ती नहीं। हम अग्नि से अरोमाथेरेपी की ओर चले गए हैं। शक्तिशाली मंत्रों के उच्चारण से affirmations की बुदबुदाहट में बदल गए हैं, उन्हें फॉरवर्ड करते हैं और “Yes” कमेंट कर देते हैं। हम गुरुजनों के प्रति श्रद्धा से अब रिंग लाइट और डिस्काउंट कोड वाले इंफ्लुएंसर्स के अनुयायी बन गए हैं।
हमारे पूजाघर अव्यवस्थित हैं, हमारे मन अराजक हैं और हमारी अंतरआत्माएं? स्थायी रूप से भ्रमित।
ईमानदारी से कहें तो हममें से अधिकतर लोग आध्यात्म के साथ वही व्यवहार करते हैं जो हम IKEA के फर्नीचर के साथ करते हैं। बॉक्स खोलते हैं, मैन्युअल को एक नज़र देखते हैं, हँसते हैं और उसे साइड में फेंक देते हैं—“मुझे इसकी ज़रूरत नहीं, मैं खुद कर लूंगा।” और तीन घंटे बाद हम एक टेढ़ी कुर्सी पर बैठे होते हैं, जो हर बार शांति पाने की कोशिश में चरचराने लगती है।
पर सच्चाई यह है—अस्वीकार्य लेकिन जरूरी सच्चाई: आत्मोन्नति आसान नहीं है। यह साधारण नहीं है। यह सुविधाजनक नहीं है। यह माँग करती है—समर्पण की, परिश्रम की, मौन की, और अनुशासन की।
मनन के लिए मूल प्रश्न:
1.आप इस विचार को कैसे देखते हैं कि आज का आधुनिक आध्यात्म "आध्यात्मिक फास्ट फूड" जैसा बन गया है—सुविधाजनक लेकिन सतही अनुभव प्रदान करने वाला?
2.क्या आप कोई व्यक्तिगत कहानी साझा कर सकते हैं जब आपको महसूस हुआ कि आपकी आध्यात्मिक साधनाएँ सच्ची जागृति (प्रथम बार कुछ अनुभव होने का क्षण) की बजाय केवल सुविधा पर केंद्रित थीं?
3.आपको ऐसी आध्यात्मिक साधनाओं के प्रति प्रतिबद्धता बनाए रखने में क्या सहायता करता है, जो "समर्पण, परिश्रम, मौन और अनुशासन" की मांग करती हैं, न कि केवल आराम और सुविधा की?