आतंरिक आवाज़ बनाम अहम् की आवाज़ , द्वारा डेविड सूदर
कुछ समय पहले मैं एक महिला मित्र से बात कर रहा था , जो इस बात पे मशक्कत कर रही थी कि क्या उसे अपने पुरुष मित्र के साथ जा कर साथ रहना शुरू कर देना चाहिए अथवा नहीं | वो पहले भी एक पुरुष साथी के साथ रही थी और वो अनुभव ठीक नहीं रहा था | उसे दोबारा किसी के साथ रहने के ख्याल को ले कर काही आशंका थी, विशेषकर जब कि उसे उस पुरुष मित्र से रोमांटिक रूप में मिलते हुए (dating) एक वर्ष से भी कम हुआ था |
उसकी घबराहट भरी बातों को सुनने के बाद मैंने उससे कहा “ ठीक है , तो आप मत जा कर रहो “ |
“पर वो बहुत ही अद्भुत है “ , उसने कहा “ हमारे बीच में बहुत ही अच्छा सम्बन्ध है , और जगह की दूरी देखते हुए, ये काफी सही लगता है” |
“ठीक है, फिर कर लो “, मैंने कहा |
पर मैंने अपने आपको बताया था , कि मैं ये दोबारा नहीं करुँगी जबतक कि मैं सौ प्रतशत पक्का मन न बना लूं , कि यही वो है – और मुझे लगता है अभी तक मैं मेरा मन पक्का नहीं है “|
क्या ये बात सुनी हुई लगती है ? हो सकता है आपके लिए आपसी सम्बन्ध का मामला न हो, हो सकता है आपके लिए आपके पेशे सम्बन्धी मामला हो, कोई बड़ी यात्रा का मामला हो , आपको अपने पुराने दोस्तों से किस तरह की बातें लिख भेजनी हैं, अथवा एक बहुत ही साधारण बात जैसे कि आज रात का खाना कहाँ खाना है का मामला हो |
कभी न कभी, हमारे जीवन में , हमें हमारे मित्र के प्रकार का अंदरूनी संगर्ष अथवा द्वन्द चलता रहता है | कोई ऐसी परिस्थिति जब हमारे अन्दर की अलग अलग आवाजें हमें दो विपरीत दिशाएं दिखा रही होती हैं | हम क्या करें ?
मैंने कुछ देर उसकी स्थिति के बारे में सोचा और कहा, "कल्पना करो कि तुम किसी गेम शो पर हो, जैसे 'कौन बनेगा करोड़पति', और सवाल यह है कि तुम्हें अपने बॉयफ्रेंड के साथ रहना चाहिए या नहीं। सामान्य सलाह यही होती है कि जो पहला जवाब तुम्हारे मन में सहज रूप से आए, वही सही होता है। लेकिन अक्सर लोग अपनी पहली प्रवृत्ति पर शक करते हैं, जरूरत से ज्यादा सोचते हैं, उसे तर्कसंगत बनाने की कोशिश करते हैं और फिर अपनी मूल प्रवृत्ति के खिलाफ फैसला लेकर गलती कर बैठते हैं। अलग शब्दों में कहें तो जब यह सवाल उठता है, तो उस समय तुम्हारी पहली सहज प्रतिक्रिया क्या है?"
कोमलता से भरी , उसने धीरे से जवाब दिया, "मुझे यह करना चाहिए।"
मेरी नज़र में, ईमानदारी की एक परिभाषा यह है कि हम अपनी आंतरिक आवाज को अपनाएं। पहली बड़ी चुनौती यह सीखना है कि आंतरिक आवाज और उसके सबसे बड़े छलावे अहम की आवाज के बीच फर्क कैसे करें।
यह पहचानने के लिए गेम शो जैसी सोच एक अच्छी रणनीति हो सकती है। एक और तरीका है लेबलिंग। जब आप किसी निर्णय के सामने हों चाहे वह छोटा हो या जीवन बदलने वाला, तो चुपचाप या लिखकर कहें, "मेरी आंतरिक आवाज कहती है..."। फिर देखें कि अहम क्या क्या कहानीएँ कहता है और उसे लिखें, "मेरा अहम कहता है..."। दोनों के बीच के फर्क को महसूस करें, लेकिन खुद को आंतरिक आवाज से जोड़कर रखें।
और इस रणनीति के साथ , इस बात की जानकारी लेना कि इनके बीच में फर्क क्या है , मदगार होता है |
आंतरिक आवाज खुद को सही ठहराने के लिए तर्क वितर्क नहीं करती। यह कहानियों में नहीं बोलती। यह आपको किसी बात के लिए राजी करने की कोशिश नहीं करती। यह जानने का एक सिर्फ महसूस किया हुआ भाव है। अपने अंदर गहरे में आप उस आवाज को महसूस करते हैं। आप इसे सहज रूप से समझते हैं। आप इसे वैसे ही जानते हैं जैसे आप जानते हैं कि दोस्ती कितनी महत्वपूर्ण है।
अहम् तर्क करता है, विश्लेषण करता है,न्यायोचित ठहराता है, एक के बाद एक कारण पेश करता है—संक्षेप में, यह चीजों के बारे में सोचता है। यह ज्ञान-संबंधी है। अक्सर अहम् डर या लालसा की भाषा बोलता है। यह आपको बताने की कोशिश कर सकता है कि आप इसे अकेले कर सकते हैं, दोस्ती कोई ज्यादा मायने नहीं रखती, कोमलता से बचना चाहिए—सिर्फ़ कहानियां!
एक बार जब आपको इन दोनों के बीच के अंतर की काफी मजबूत समझ आ जाती है—बौद्धिक रूप से नहीं, बल्कि वास्तविकता में अंतर जानने में सक्षम होना—तो अगला बड़ा काम यह साहस करना है कि आंतरिक आवाज जो कह रही है उसे अमल में लाना है। बेशक, यह डरावना हो सकता है, लेकिन अगर हमें ईमानदारी के मार्ग पर चलना है तो यह काम करना ही होगा।
उस शुरुआती बातचीत के कुछ हफ़्ते बाद, मैंने अपने दोस्त से फिर से पूछा, “तो तुमने क्या फैसला किया?”
“हमने अभी-अभी एक किरायेनामे पर हस्ताक्षर किए हैं,” उसने खुशी से कहा।
बहुत बढ़िया! बहुत बढ़िया!
चिंतन के लिए बीज प्रश्न: आप आंतरिक आवाज़ और अहम् की आवाज़ के बीच के अंतर को कैसे समझते हैं? -क्या आप किसी ऐसे समय की व्यक्तिगत कहानी साझा कर सकते हैं जब आपने अपनी आंतरिक आवाज़ को सुनकर उसे अमल में लाने का साहस किया हो? -आपको सत्यता और निष्कपटता के मार्ग पर चलने में क्या मदद करता है?