
मछली , जाल और पानी
⁃ मौरो बर्गोंज़ी के द्वारा ,
एक बार मछली ने कछुए से कहा:
मैंने एक विशाल चीज़ के बारे में सुना है जिसे समंदर कहा जाता है। क्या वह सच में अस्तित्व में है? मैं उसकी तलाश में चारों ओर देख रही हूँ, लेकिन मुझे केवल रेत, शंख और दूसरी मछलियाँ ही दिखाई देती हैं। समंदर कहाँ है?
कछुए ने उत्तर दिया
समंदर हर जगह है, तुम्हारे भीतर भी और बाहर भी। लेकिन अगर तुम किसी खास चीज़ की तलाश में हो, तो तुम उसे नहीं देख पाओगी।
जो कुछ भी तुम देख सकते हो, जान सकते हो या समझ सकते हो, वह हमेशा किसी न किसी विशेष रूप में सीमित होता है; वह सम्पूर्ण नहीं होता।
वह केवल एक नक्शा है, असली ज़मीन नहीं।
एक नक्शा कई विचारों और शब्दों से बना होता है, जिन्हें हमारी सोच के जाल से जोड़ा गया होता है, ताकि यह हमें दुनिया की एक योजनाबद्ध और सारांश झलक दे सके। यह एक उपयोगी उपकरण है, लेकिन वास्तविकता की सच्ची प्रकृति को पकड़ने में अक्षम है।
मछुआरे का जाल वास्तव में रस्सियों से बंधे हुए छेदों का समूह होता है; यह केवल मछलियाँ पकड़ सकता है, उस पानी को नहीं जिसमें यह पूरी तरह डूबा हुआ है।
उसी तरह, हमारे विचारों का जाल केवल वास्तविकता के बिखरे हुए टुकड़ों को ही पकड़ सकता है, लेकिन वास्तविकता स्वयं हमेशा इसकी पहुँच से परे होती है।
इसलिए, हमारी मानसिक मानचित्रों की अपर्याप्तता हमें उन्हें और अधिक जटिल बनाने के लिए प्रेरित करती है, यह सोचकर कि जब वे पर्याप्त जटिल हो जाएंगे, तो वे हर दृष्टिकोण से सम्पूर्ण 'सत्य' को पकड़ सकेंगे। यह वैसा ही है जैसे एक नदी के प्रवाह को तस्वीर में दर्शाने के लिए उसकी अनगिनत तस्वीरें खींचना।
चाहे कितनी भी तस्वीरें क्यों न हों, स्थिर चित्र कभी भी किसी गति को दोहरा नहीं सकते।
वास्तविकता कोई समस्या नहीं है जिसे हल किया जाना चाहिए, चाहे हम उसे कितना भी जटिल क्यों न मानें, वास्तविकता वास्तव में एक रहस्य है।
हम एक रहस्य को ऐसे 'सुलझा' नहीं सकते जैसे वह कोई समस्या हो, हम केवल उसमें समा सकते हैं और यह महसूस कर सकते हैं कि हमें उसे 'समझने' की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि हम स्वयं वही हैं।
फिर भी, सम्पूर्ण सत्य को समझने में असमर्थ होने की हताशा में, हम लगातार और अधिक जटिल नक्शे बनाते रहते हैं, बजाय इसके कि हम इस प्रमाण(evidenve) के सामने समर्पण कर दें कि अस्तित्व का रहस्य वास्तव में इतना सरल है कि उसे मन की जटिलताओं से जाना ही नहीं जा सकता, इतना सरल कि वह किसी भी विचार के पकड़ में नहीं आता।
हालाँकि, कभी न कभी , हमारा विचारों और मानसिक नक्शों में विश्वास स्वयं ही ढह जाता है, और यह हमारी ज़िंदगी में हमारी अपेक्षा से अधिक बार होता है, भले ही हम उसको जागरूक हो कर न पहचाने।
तब हम स्वयं को अज्ञात शून्यता में मुक्त रूप से समाते हुए पा सकते हैं, जहां अस्तित्व की परम सरलता इस बहुआयामी ब्रह्मांड के आश्चर्य में विस्फोटित हो जाती है।
इस अभिज्ञान और स्वीकार के प्रकाश में, यह पूरी तरह से अप्रासंगिक हो जाता है कि हमारे वैचारिक मानचित्र(नक्शे) काम कर रहे हैं या नहीं, क्योंकि वे भी किसी भी अन्य अनुभव की तरह अस्तित्व की पूर्ण सादगी की एक क्षणिक अभिव्यक्ति मात्र हैं।
मनन के लिए मूल प्रश्न
1. आप इस विचार से कैसे जुड़ते हैं कि वास्तविकता कोई समस्या नहीं है जिसे हल किया जाए, बल्कि एक रहस्य है जिसे अनुभव किया जाए?
2. क्या आप कोई व्यक्तिगत अनुभव साझा कर सकते हैं जब आपने मानसिक वैचारिक नक्शों से परे जाकर वास्तविकता के सामने समर्पण किया हो?
3. आपको यह जानने में क्या मदद करता है कि अवधारणाओं में आपका विश्वास अनायास सहज तरीके से खत्म हो गया है?