Humility Really Cannot be Considered a Virtue


Image of the Weekविनम्रता को वास्तव में एक गुण नहीं माना जा सकता
-- स्वामी दयानंद सरस्वती (७ अक्टूबर, २०१५)

अहंकार और अभिमान का गहरा रिश्ता है, दोनों एक ही कारण से पैदा हुए लगभग एक जैसे प्रभाव वाले, दुनिया के साथ अहम की व्यक्तिगत भावना के रिश्ते की अज्ञानता हैं।(…) जबकि, स्वतंत्र इच्छा से शोभित, मुझे अपने कर्मों का चुनाव करने की खुली छुट्टी है, लेकिन उन चुने हुए कार्यों के वास्तविक परिणामों पर मेरा कोई ज़ोर नहीं है; जिस परिणाम की मुझे आशा है वो कभी भी बहुत सी संभावनाओं के बीच एक संभावना से ज्यादा नहीं हो सकता। मैं परिणाम को उत्मन्न नहीं करता। मेरे किसी भी काम का परिणाम, उन चीज़ों के कारण होता है जिन्हें मैंने नहीं बनाया और साथ ही उन कितनी ही परिस्थतियों के कारण, कुछ अतीत की और कुछ वर्तमान की, कुछ ज्ञात और कुछ अज्ञात, जो उस परिणाम को पैदा करने के लिए एक-दूसरे के साथ सामंजस्य से काम करती हैं।

अगर मेरी सशक्त और निपुण बांह एक अमेरिकी फुटबॉल खेल के अंतिम सेकंड में जीतने वाला पास फेंकती है, तो ऐसे इतने स्थूल और परिस्थितिजन्य कारण उस परिणाम की लाने में एक साथ घटते हैं, कि उस परिणाम को व्यक्तिगत गर्व का विषय नहीं माना जा सकता। न तो मैं उस फुटबॉल का निर्माता हूँ और न ही अपने पुष्ट शरीर का। जिस बांह ने वो गेंद फेंकी, उसके कौशल के विकास में बहुत से लोगों और अनुभवों का योगदान है। मैं उस आंधी तूफान को रोकने का कारण नहीं हूँ जिसके रुकने की वजह से उस खेल को रद्द करने की जरूरत नहीं पड़ी, या वो तेज़ भूकम्प का झटका जो मेरे गेंद फेंकने के ६० सेकेण्ड बाद आया, क्योंकि अगर वो एक मिनट पहले आया होता तो मेरा पास बिगड़ गया होता। न ही मैं अपने उस साथी के उस गेंद को पकड़ लेने, जिसकी वजह से हमें जीतने वाला पॉइंट मिला, उस पर कोई दावा कर सकता हूँ।

गर्व और अहंकार को जब हम ध्यान से देखें तो वो इतने हास्यप्रद लगते हैं कि विनम्रता को वास्तव में एक गुण नहीं माना जा सकता। विनम्रता का अर्थ तो बस दुनिया को समझना है, और अपने आप को भी, क्योंकि मैं बिलकुल जैसा हूँ, वैसा ही इस दुनिया का हिस्सा हूँ। जब मैं चीज़ों को जैसी वो हैं, उन्हें वैसा ही समझ लूँगा, तब मैं न तो गर्वित होऊंगा और न ही खुद को किसी चीज़ के लिए दोषी ठहराऊंगा। खुद को दोषी ठहराना भी एक तरह से अहम का प्रदर्शन है (…), जिसे इस सोच से शुद्ध किया जा सकता है कि निंदा का सार एक खास विचार के सिवाए कुछ नहीं है।(…) मैं समझता हूँ कि किसी भी चीज़ के लिए व्यक्तिगत श्रेय लेना व्यर्थ है और उसे साबित भी नहीं किया जा सकता। मैं बिना अहंकार, बिना गौरव, केवल ज्ञान की खोज के एक क्षेत्र के रूप में इस दुनिया का आनंद लेता हूँ।

विचार के लिए मूल प्रश्न: आप इस बात से क्या समझते हैं कि विनम्रता का अर्थ है बस दुनिया को समझ पाना ? क्या आप कोई व्यक्तिगत अनुभव बांटना चाहेंगे जब ऎसी किसी समझ से आपका अभिमान मिट गया हो ? ऐसी कौनसी साधना है जिसने आपको ऐसी समझ को विकसित करने में मदद मिली है ?

स्वामी दयानंद सरस्वतीi की पुस्तक, "मान्यताओं के मूल्य” के कुछ अंश।
 

Excerpted from Swami Dayananda Sawaswati's book, "The Value of Values."


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