Speaker: Gopal, Arti, Nine-Year-Old Ojasvi!

[These transcripts, as with all aspects of Awakin Calls, are created as a labor of love by an all-volunteer team located around the world. They are a collective offering, born from a shared practice of deep listening and service. Diverse and spontaneous teams emerge week to week to create and offer these calls. See our organizing principles here. Listeners are invited to join our co-creative community here.]


7 जून को गर्ग परिवार - आरती, गोपाल व उनकी 9-वर्षीय बेटी ओजस्वी हमारे साथ 'अवेकिन टॉक्स' पर जुड़े। इस परिवार ने हाल ही में 3,400 कि।मी। लम्बी नर्मदा जी की पैदल परिक्रमा संपन्न की है।  जैसा की राहुल, हमारे सूत्रधार ने बखूब कहा, किसी एक नर्मदा यात्री से मिलना, एक दुर्लभ  घटना होती है - और हमारा सौभाग्य ही है की इस संवाद में हमे चार-चार यात्रियों से गहराई से रूबरू होने का अवसर प्राप्त हुआ। 

ऐसा सुना है की नर्मदा जी 40,000 साल पुरानी, भारत की प्राचीनतम नदियों में से एक है - कई हिमालय की नदियों से भी अधिक प्राचीन। भारत में नदियों को एक भगवान या देवी का रूप में देखने की प्रथा भी काफी सुलभ है और नर्मदा जी को भी परिक्रमावासी एक दिव्य माता की तरह देखते हैं। कम से कम पिछले 7,000 सालों से नर्मदा मैया कई भक्तों, शरणागतों, साधकों एवं खोजिओं को अपनी ओर आकृष्ट करती चली आ रही है। अमरकंटक या ओम्कारेश्वर से आमतौर पर ये यात्रा शुरू होती है, और पैदल चलते-चलते यात्री नदी की पूरी लम्बाई दोनों ओर से तय करते हैं। 

कम-से-कम सुविधाओं के साथ इस कद्र यूँ 4-5 महीने चलते रहना, सारे रोज़मर्रा के शहरी आराम त्याग कर। अपनी बुनियादी ज़रूरतें  - जैसे की भोजन, सोने के लिए छत इत्यादि के लिए ‘गरीब’ गांववालों पर आश्रित हो जाना।  क्या प्रेरित करता है आम इंसानो को ऐसा करने के लिए? और क्या प्रभाव पड़ता है ऐसी यात्रा का इन परिक्रमावासीयों पर? 

मुझे बहुत आभार है गर्ग परिवार का जिन्होंने ऐसे प्रश्नों पर प्रकाश डाला एवं हमारी सखी परिक्रमावासी तृप्ति पंड्या का, जिन्होंने इस इंटरव्यू का बड़ी की कुशलता से संचालन किया। पेश कर रहे है हम, इस संवाद का एक लिखित सारांश-  

तृप्ति -  परिक्रमा पर जाने की प्रेरणा आप को कैसे हुई?

गोपाल -  जब हमने ये निश्चय किया था, वो पल याद आ रहे हैं। परिक्रमा पर निकलने के तीन साल पहले से ऐसा विचार था, की ऐसी कोई यात्रा पर जाऊ, जहा असली ”'भारत” से जुड़ने का मौका मिले। इच्छा थी ग्रामवासिओ के साथ रहूँ, और समझूँ असली भारत क्या है। ऐसा लग रहा था की हम तो शहरों के “इंडिया” में रहते हैं, जिसका शायद असली “भारत” से ज्यादा तालुकात नही है। पैदल चलूँ, तो मन की गति भी कुछ धीमी हो, जो की साधना में एवं जीवन को गहराई से समझने के लिए बहुत सहायक रहती है। ऐसा चाहता था की स्वयं के साथ थोड़ा समय मिल सके।

तीन वर्ष पहले, सुघड़ (अहमदाबाद) में समावेश पर आधारित शिविर (inclusion retreat) के दौरान 'नर्मदा परिक्रमा' ऐसा शब्द पहली बार सुना। सुनने पर तुरंत लगा की ये तो करनी चाहिए। सही कहूँ तो कोई नई चीज लगी ही नहीं। कोई पुराना रिश्ता था मानो जैसे। एक सोई हुई जिज्ञासा जाग उठी। 

तृप्ति - कई बार कुछ ऐसी अध्यात्म एवं साधना की बातें हमें आकर्षित करती है, पर हम भविष्य के लिए रख देते हैं, रिटायरमेंट के बाद के लिए छोड़ देते हैं। आप को कैसे पता चला, की यह सही समय था? 

गोपाल - जरूर यह मुश्किल निर्णय था हमारे लिए। परन्तु जिज्ञासा इतनी अधिक थी, की एक वक्त ऐसा आया की मैंने ठान लिया “अब तो यह यात्रा करनी ही है”। मन में ऐसा भाव आया। एक गहरी अंदरूनी पुकार थी वो, शब्दों में ज़ाहिर करना मुश्किल है।  "दीपावली के अगले दिन मुझे अपना बस्ता उठाकर निकल जाना है।" पहले सोचा था अकेला जाऊँगा। नर्मदा जी की कृपा से कुछ ऐसा संयोग बना की हम सब एक परिवार की तरह यह यात्रा ले सके।  अपनी आध्यात्मिक साधना को भी उसके लिए धन्यवाद देता हूँ।  क्यों की आम तौर पर हमारे मन में इतना कोलाहल होता है, की हम अपनी अंदरूनी पुकार सुन ही नहीं पाते। मेरे ध्यान और मौन के अभ्यास के कारण मुझे लगता है मै वह पुकार सुन पाया।  फिर नर्मदा मैया की कृपा तो थी ही, उस के बिना ऐसा संयोग हो पाना बड़ा मुश्किल है। 

तृप्ति - गोपाल आप को यात्रा का विचार आया था, फिर इस में परिवार आप का कैसे जुड़ा? जैसे आप साथ चले, क्या आप के परस्पर सम्बन्धों में कुछ बदलाव आया?

गोपाल -  पिछले साल मै और आरती काफी असमंजस में थे -- क्या मुझे अकेले जाना चाहिए या आरती और ओजस्वी भी साथ आए? आरती और मुझे पर्वतारोहण का बहुत शौक और अभ्यास है -- कैलाश मानसरोवर, स्वर्गारोहिणी इत्यादी हम साथ जा चुके है। तो हमने निश्चय किया की आरती को तो ज़रूर साथ आना चाहिए।  रिश्ता और भी गहरा होता है जब साथ में ऐसी चीज़ करें। फिर सोचा, ओजस्वी भी तो हमारा ही हिस्सा है, उसे क्यों छोड़े? उसे हमने इंटरनेट से परिक्रमा के कुछ वीडियो दिखाये - जैसे की एक 7 साल की लड़की ने ऐसी परिक्रमा की थी। उसे भी काफी उत्सुकता और उत्साह हुआ यह देख कर, फिर हम ने निर्णय किया की हम तीनों एक साथ जायेंगे। अब आज लौटने का बाद अगर हम कुछ इस विषय में, इस भाव में बात करते है, तो तीनों के मन में सन्दर्भ सामान होता है। अन्यथा, अगर मैंने ये अकेले किया होता, तो एक दूसरे को हमारा दृष्टिकोण समझने में और भी मुश्किल आ सकती थी। मैंने पाया की परिवार को जोड़ने के लिए यह बहुत कारगर हुआ। हम ने हमेशा कोशिश की है, की ओजस्वी की शिक्षा भी केवल किताबी ज्ञान की अपेक्षा, वास्तविक जीवन से हो, तो उस दृष्टिकोण से भी यह बहुत अच्छा रहा।

तृप्ति -  ओजस्वी, हमने सुना है की शुरुआत में आपको स्कूल छोड़ ने का मन नहीं था, क्यों की उस वक्त आने वाले वार्षिकोत्सव (सालाना जलसे) में आप का एक अच्छा किरदार था। 

ओजस्वी - नदी की परिक्रमा सुन कर उत्साहित हो गई, स्वरा और तृप्ति दीदी से प्रेरणा मिली की प्रकृति का इतना सौंदर्य है। गांव का, किसानो और उन के खेतो के बीच होने का एक नया अनुभव मिलेगा ? नायाब अनुभव मिलेंगे, नदी के किनारे चलूंगी। इस लिए मैंने जाने का मन बनाया। जब लौटी तो स्कूल के मेरे दोस्तों ने कहा “तुम्हारी फील्ड ट्रीप तो सब से शानदार हो गई।” 

तृप्ति - कोई ऐसा अनुभव आप बाँटना चाहेंगी इस यात्रा से, जब किताब का ज्ञान अनुभव पर उतर आया हो?

ओजस्वी - हा, एक दिन गाँव के बीच से हम गुज़र रहे थे। तीन लड़कियाँ बाल्टियाँ लिए, कुएँ की तरफ जा रही थी, और मै पूछ पड़ी - "दीदी क्या मैं कुएँ से पानी निकाल सकती हूँ?" उन्होंने हँसकर मुझे साथ जोड़ लिया।  जब मैंने कुएँ से पानी निकालने की कोशिश की तो वो बाल्टी बहुत भारी थी, मेरे हाथ से ही छूट गई। कोशिश करते-करते आखिरकार मैं समझ गई और कामयाब हुई।  इतना ही नहीं वो सभी दीदियों से मेरी दोस्ती भी हो गई। उन्होंने मुझे अपने घर बुलाया, और कटोरा भर कर ताज़े मटर की सब्जी खिलाई।

तृप्ति - लगता है यात्रा के दौरान तुमने बहुत दोस्त बनाए, अन्जान लोगों के घरों पर भी गयी। तुम्हे डर नहीं लगा?  

ओजस्वी - सभी यात्रा पर मुझे बहुत प्यार से बुलाते थे। मुझे अन्जान कम, रिश्तेदार या करीबी परिवार वालो की तरह लगते थे वह। कोई किसान मुझे खेती के कुछ गुर सीखने बुलाता, कोई मुझे खाना खिलाने - मै तो खुशी खुशी चली जाती थी। ड़र तो ऐसे कभी नहीं लगा।

तृप्ति - आरती, एक गृहिणी होते हुए आप घर छोड़ के इस अनिश्चित यात्रा पर कैसे निकल पाई?  कुछ विशेष तैयारी करनी पड़ी आप लोगो को?

आरती -  ये पूरी की पूरी यात्रा अनिश्चितता से परिपूर्ण थी, कब कैसी परिस्थितियाँ आएँगी, कैसी मुश्किल आएगी, कैसी मदद आएगी, ये नहीं जोड़ा जा सकता। ख़ास कर के बेटी को लेकर जाना। तैयारियाँ हमने 3-4  महीने पहले शुरू कर दी थी। धैर्य पूर्वक समझाते समझाते सास-ससुर की अनुमति एवं आशीर्वाद पाया। 
शारीरिक रूप से भी खुद को तैयार किया। चार - साढ़े चार महीने दो बस्ते पर जीना है, सारी सर-से-लेकर-एड़ी तक क्या बिल्कुल ज़रूरत की चीजे होनी चाहिए, इसका आकलन किया।  स्वरा और आप की यात्रा के अनुभव से बहुत कुछ समझा। जो कम से कम जरुरत का सामान हो, वो ही रखे क्यों की अगर वजन 200  ग्राम भी बढे तो कंधे पर लटका कर पांच महीने तक अत्यधिक वजन लेकर घूमने में बुद्धिमानी नही है। साथ ही साथ कोई बहुत काम का सामान नहीं लेकर गए, तो वह भी एक अलग मुश्किल है। घर की ज़िम्मेदारियाँ दुसरो से आग्रह कर उन्हें सौंपी। 
एक माँ होने के नाते ज़ाहिर तौर पर चिंता रहती है बच्ची को सही भोजन मिले, घर मिले और सेहत सही रहे। तो चिंता तो थी, पर कोई चमत्कार से कम नहीं की सबकुछ बहुत अच्छे से हो गया। जैसे एक दिन ओजस्वी के पेट में दर्द हो रहा था। कोई एक नेक महिला ने उसी समय अपने घर चाय पर बुला लिया। घर में देखा तो चायपत्ती और दूध दोनों ही नहीं थे उन के पास। तुलसी के पत्ते और अदरक डालकर उन्होंने चाय बनाई, जो की ओजस्वी के पेट दर्द के लिए बिलकुल सटीक साबित हुई। उस दिन यह आभास हुआ, की मैं और गोपाल तो बस निमित्त मात्र है, हम से ऊपर भी दिव्य माता कोई है।

तृप्ति - अद्भुत! मुझे याद आता है की आपने ओजस्वी को कहा, की माँ से प्रार्थना करो।  क्या पता शायद माँ ने उस महिला को भेज दिया।  

राहुल- कोई व्यक्तिगत या पारिवारिक व्रत आप लोगों ने इस यात्रा में लिया हो अपनी साधना और मज़बूत बनाने के लिए?

गोपाल- यात्रा का प्रारम्भ करने के पहले 3 नियम लिए -  पैदल ही चलेंगे, सवेरे तीनों प्रार्थना करके निकलेंगे, सवेरे और शाम में नर्मदाजी की पूजा करेंगे। चलते चलते, गाँव में अनुभव के आधार पर 2 नियम और जोड़े ।  हमने देखा की कई बार भेदभाव होने के कारण लोग एक दूसरे की निंदा करते  है। तो हमने निर्णय किया की हम किसी की निंदा नहीं करेंगे, एवं अगर कोई किसी की निंदा कर भी रहा हो, तो हम उसमे भागीदारी नहीं बनेंगे।  

तृप्ति - आपने बहुत कुछ पढ़ा  इंटरनेट पर इस यात्रा के बारे में।  असल यात्रा और जो पढ़ा था उसे कोई मुख्य अंतर दिखा?

गोपाल - हमें बहुत आचार्य हुआ जब यात्रा के दौरान हमें पता चला की 3 मार्ग हो सकते है।  नदी के किनारे किनारे जो की सबसे दुर्लभ है, कही पर पैर फिसला तो मुश्किल आ सकती है;  गांव के द्वारा, और तीसरा हाईवे से। हम अधिकतर किनारे किनारे चले, तो बहुत प्राकृतिक सौंदर्य भी मिला, कुछ समय गांव में भी चले क्यूँकि नदी में बाँध बनने के कारण रास्ते बंद थे।  दूसरे हमें ये अंदाज़ा नहीं था के नर्मदा खंड में इतने संत, ऋषिमुनि व साधू साधना करते है।  हिमालय के जितने हों शायद उससे भी ज्यादा।  वैराग्य की नदी मानी जाती है नर्मदा। ऐसे लोगो का दर्शन होना ही सौभाग्यशाली महसूस हो रहा है। बहुत कुछ बताया उन लोगों ने, ज्ञान मिला। ये सोचा नहीं था।

तृप्ति - कुछ ऐसी संतवाणी हमारे साथ भी आप साझा करे।

गोपाल - हम आवलीं घाट,पटौदा गाँव पहुचने वाले थे। तभी एक संत मिले, खुद में लीन चले जा रहे थे, विशाल कमंडल था उनके हाथों  में। देख कर प्रतीत हो रहा था शयद बहुत साधना कर रखी हो उन्होने। 1 कि.मी. वह चुप चाप हमारे साथ चलते रहे, उसके बाद चाय के लिए अपने आश्रम आमंत्रित किया। 2 छोटे कमरे थे आश्रम में पर बहुत सुन्दर। 9 साल से तपस्या कर रहे थे वे 1 और सन्यासी के साथ। हमें आश्रम और उनकी वाणी इतनी मधुर लगी, की चाहा यहाँ रुके कुछ वक़्त। पर पूछना अच्छा नहीं लग रहा था।  इतने में वे खुद की कह बैठे- शाम 4 बज गए हैं , अगला गांव पास ही हैं, पर फिर भी आप यहाँ रुक जाए। उन्होने हमें "योग क्रीड़ा" भी सिखाई। इतना अच्छा लगा, खेल के द्वारा योग।  चौथी कक्षा तक पढ़े थे वह, 12 की उम्र में घर छोड़ कर साधना में लगे।  इतनी सेवा की 3 दिन तक हमारी, इतनी विनम्रता, इससे बड़ी सौभाग्य की बात क्या हो सकती हैं ? 

तृप्ति - इस यात्रा में ज्यादातर पुरुष चलते है, महिलाएँ बहुत कम। दिखती भी हैं तो उम्रदराज़, 60 के ऊपर। एक महिला के तौर पर, आपका अनुभव कैसा था?  कोई कठिनाइयाँ आयी आपको?

आरती - आम तौर पर यात्रियों को रहने के लिए आश्रम, स्कूल या मंदिर मिल जाता था। ऐसी जगह पर महिलाओ के लिए अलग शौचालय की शायद एक परेशानी रहती है।  मुझे और बच्ची को साथ देख कर, कई गाँव वाले कहते की आप हमारे घर पर रहो। टीचर्स, गाँव के सरपंच एवं संतो ने, सबने हमारे लिए कमरे खोले। 
  
एक कहानी और आपसे बाँटना चाहूँगी। आदिवासी क्षेत्र - शूल्पणेश्वर की झाडी पार करने में 4-5  दिनों का वक़्त लगता है।  मुश्किल से 1-2 घर है वहाँ। एक गृहिणी जिन्होंने हमें आश्रय दिया, बहुत ही प्रेम भाव वाली थी।  इतने छोटे घर में, 7 बच्चे, 3-4 गायें, बकरी, मुर्गी सब उसी झोपडी में साथ रहते थे।  उनके चेहरे पे एक बहुत अलग शांति थी। पानी भी वह बहुत दूर से भरकर लाती थी। मैंने पूछा “आपके पास इतनी कम सुविधा है , फिर भी आप इस भाव से हमें दान दे रही है?” तो उन्होंने कहा - " मेरे पास जो उपलब्ध है, वही पर्याप्त हैं। " 

एक बड़ी सीख थी वह हमारे लिए, क्योंकि ये एक अलग की प्रकार का दान था।  हमारे पास बहुत कुछ होते हुए भी  हम जोड़-घटाव में फँस जाते है, पर इनके पास कुछ नहीं होते भी, ये एक राजा की तरह सबको दान देते हैं।  इनकी मनोदशा कुछ और ही हैं, की इतना कम होते हुए भी, भविष्य के लिए संचय करने के बजाय ये सबसे बांटने को आतुर रहते है। हमारे पेट तो हमेशा भरे ही रहे, पर दिल भी बार बार ये देख के भर आता था, और आँखे नम रहती थी।  

तृप्ति - कोई ऐसी घटना जब आप औरो की करूणा का पात्र बनी हो?

ओजस्वी - हम बस सड़क पे चल रहे थे, मैं कुछ लड़खड़ा रही थी, क्योंकि मेरे पेट में बहुत दर्द हो रहा था। साथ ही कुछ लोग कह रहे थे की आगे भालू आएगा, की आगे नदी है केवल लकड़ी से पार करना पड़ेगा इत्यादि।  कही से भागते हुए 1 साधू सामने आ गए। उन्हें शायद पीछे गांव वालों  ने कहा की 1 परिवार चल रहा है, आप उनकी मदद करने जाइये। उन्होंने हमें आगे रास्ता दिखाया और साथ लक्कड़कोट जंगल पार कराया। मंदिर पहुंचने के बाद, एक सज्जन ने मेरे पेट में कुछ एक्युप्रेशर जैसा किया, जिससे मुझे अच्छा महसूस होने लगा।  फिर उस संत महाराज ने मंत्र बोलकर पानी पिलाया , उससे मेरा दर्द पूरा ही ठीक हो गया।  फिर में जंगल में आनंद पूर्वक खेली रातभर।   

तृप्ति - ऐसी यात्रा में आप पूरी तरह से दूसरो पे आश्रित होते है अपने भरण पोषण के लिए।  पैसे आपके पास हो भी सकते है, पर अंदर गांव और जंगलो में पैसों से आप अपनी ज़रूरतें खरीद नहीं सकते।  खाना मांगना पड़ता था, रुकने के लिए पूछना पड़ता था। तो क्या आपका अहम् भाव कभी आड़े आता था?

गोपाल - हम जियें है इस सवाल के साथ। मेरी दादी , हम उन्हें माँ कहते थे, वह हमेशा 2 रोटियाँ अधिक् बना के रखती थी। मुझे बड़ा ताज़्ज़ुब होता और मैं पूछता था “ये क्यों” और वे कहती, " कभी भी किसी को भी ज़रुरत पड़ जाए?"। 

गांव में नाश्ते का कोई चलन नहीं है, 10:00-10:30 बजे भोजन बना के लोग खा लेते थे। हमें सुबह भूख लगती थी, तो हमें ख्याल आया की घर जाकर "कल रात की रोटी बची है क्या?" ऐसा पूछे।  प्रति दिन इस तरह हमें वह सूखी, बासी रोटी मिलती और उसका सही मूल्य मालूम पड़ा।  शायद इन लोगो ने भी उसी सोच से 2 अतिरिक्त रोटियाँ बना के रखी थी। ये देख हर हमें अनुभव हुआ की अपना जीवन देखने वाले आप है नहीं, कोई और हैं।  ऐसे वातावरण में , प्रेम और भाव देखा जाता है, पैसा नहीं। कोई हिसाब-किताब का भाव है ही नहीं। बात लेन-देन से भरोसे, प्रेम एवं गहरे अंदरूनी विकास की हो जाती है।   

तृप्ति - अब आप शहर लौटआये है। अब सारी सुख सुविधा, पैसे वापस आ गए है। क्या आपको लगता है इन सुविधाओं से आपका जो सम्बन्ध है, उसमे कुछ बुनियादी बदलाव आया हैं ?

गोपाल - अभी हम पिछले महीने ही लौटे हैं। ये ज़रूर बदलाव दिखता है जो हम पैसे के पीछे भागते हैं, जीवन व्यर्थ करते हैं, वह अब मैं शायद नहीं करूँगा, क्यों की मुझे पता चल गया है की प्रेम और सेवा-भाव कितनी बड़ी और खूबसूरत और नेक चीज़ है। पैसे और सुविधाओं की अपनी एक अहम् जगह है, पर वो जीवन का मकसद नहीं बन जानी चाहिए। 

आरती - मुझ मे इस से एक आत्मसमर्पण का भाव जन्मा है।  एक माँ होने के नाते, मेरी दुआ होती है की बच्ची कभी भूखी न जाए। गांव में दोपहर का समय था, खेत के पास हम चल रहे थे, तभी एक किसान ने आवाज़ लगायी "नर्मदे हर"। अपनी जेब से तीन रोटियाँ निकाल के वो कहता है "अगला आश्रम दूर है, आप तीनो ये ले लो।" मैंने उसे बड़े भारी मन से पूछा, की हम तीनों रोटियाँ आपकी कैसे ले सकते हैं ? उन्होंने उत्तर दिया “जब आप तीनों खाएंगे, तो मेरा पेट भर जाएगा।” मैंने इस यात्रा में दिन प्रतिदिन देखा की अपना पेट तो पहले भर जाता है , पर सेवा करने वालों का सेवा भाव कभी ख़त्म नहीं होता। 

तृप्ती - हम 5 महीने चले पर एक दिन भी भूखे नहीं रहे या ऐसा नहीं हुआ की सोने कि जगह न मिली हो। 

आरती - सही समय पे सह सही उपाय हो  जाते हैं। 

तृप्ती - अच्छा है।  वह अलग ही तरह का माँ प्रकृति की योजना है, जो शायद “एक्सेल शीट” की प्लानिंग में हम नहीं बना सकते। 

तृप्ती - यात्रा में ऐसे कोई क्षण आये हो जिसमे आपने खुद को असहाय महसूस किया ?

गोपाल - एक क्षण याद आता है। सहपुरा नाम का तहसील था , शाम के 6 बज गए थे और हम सोने की जगह ढून्ढ रहे थे। बहुत बड़ा एक मंदिर मिला पर वहां अनुमति नहीं मिली। दूसरा एक मंदिर मिला पर वहां कोई सुविधा नहीं थी। किसी ने सुझाया की एक समृध्द घर है, शायद वहां कुछ उपाय हो। हम वहां पहुंचे तो उन्होंने अपने दूकान के गोदाम में रहने का निर्देश दिया। परन्तु वह गोदाम कि स्थिति बहुत बुरी थी, हम वहां नहीं रुक पाए। वहां से निकले और फिर बहुत ढूँढा। उस शाम समझ आया की बेघर क्या होता है। पैसे हो, “क्रेडिट कार्ड” हो, पर कहाँ रहोगे? एक किराना दूकान पर गए, उन्होंने समझाया की तहसील अध्यक्ष के यहाँ जाए। उन्होंने अपना दफ्तर खोल दिया और हम वहां सो पाए। यह समझ आया की अंत में सब कुछ परमात्मा पर ही छोड़ना होता है। 

तृप्ती -   कोई ऐसा पल जब आपके सिद्धांतों की कसौटी हुई हो ?

गोपाल - एक शाम हम निवास के लिए सरपंच का घर ढूंढ रहे थे। रास्ते में एक झोपडी में बूढ़े बाबा दिखे। उन्होंने बुलाया और चाय पिलाया। बहुत प्रेम से कहा की आप मेरे ही घर रह जाइए, और बूढी माता ने भी कहा की आपको यहीं रहना है। हम मान गए।  उन्होंने भोजन बनाया और परोसा।  हम ग्रहण करने ही वाले थे की एकदम से उन्होंने कहा की वे निचली जाती के है , तो शायद उनके यहाँ हमारा भोजन पाना सही न हो। तब लगा कितनी गहरी है ये जात-पात की दीवारें। मैंने सोचा की यात्री की कोई जात नहीं होती। हम मछुवारों के घर पर, किसानों के घर पर , सब के यहाँ रुके। हम तो प्रेम-भाव के भूके थे।  

आरती -और एक करुणा की कहानी बताना चाहूंगी। भरोत से 15 कि.मी. दूर गुमानदेव जाने के दो रास्ते है। रेल की पटरियों से होते हुए या फिर बहुत सारे गावों से गुज़रकर। तीन लड़कों ने हमारी मदद की। उन्होंने हमें पटरियों वाला रास्ता दिखाया और बताया की इससे 1.5 घंटे बच जाएंगे। मैंने बस इतना पूछा "क्या आप हमारे साथ चलेंगे?" वे एकदम से तैयार हो गए और चल दिए। ये भी कहा की रेल आती होगी तो हम बताएँगे की कैसे पटरियों से हटना है। उनकी उदारता से हम कृतज्ञ हो उठे और उन्हें कुछ पैसे देने चाहे। पर वो लेना ही नहीं चाहते थे। बड़ा समझाया- बुझाया तो मुश्किल से वो माने। बहुत समता और शक्ति देती है हमे ये घटनाएं। 

तृप्ती - आपकी सबसे बड़ी सीख क्या रही यात्रा की ?

गोपाल - अपनी गति को धीमा करना। हमें जल्दबाज़ी में चीज़े करने की आदत है। शहर में ऐसा अक्सर होता है। मेरे काम में मैंने खुद महसूस किया है ये। धीमेपन में बहुत गहराई होती है - आप सही सोचते हैं, अच्छा सोचते हैं। सय्यम आ गया था अपने बर्ताव में। जैसे ओजस्वी उठने मे परेशान करती थी, तो उसे सय्यम से सँभालने लगा। जो काम सय्यम से हो सके उसे क्रोध से क्यूँ करे? समता बढ़ी, विपश्यना साधना भी करता हूँ तो समता का मूल्य समझता  हूँ। 

तृप्ति -ऐसा सुना है ओजस्वी, आप जब किसी परेशानी में होती थी, तो अपने पापा से सीख "अनित्य बोध" ऐसा बोलती थी। आपने इस यात्रा से आपने क्या सीखा ?

ओजस्वी - मैंने सीखा है परिस्थितियों को स्वीकार कर लेना।अगर कोई आपको कुछ दे रहा है तो उसे स्वीकार करना चाहिए, आपको उसमे कमियाँ नहीं देखनी चाहिए। अगर हम 3 को सोना हो, पर जगह इतनी छोटी मिले की केवल २ तकिये ही आ पाए , तब मुझे वह स्वीकार करना है। और मिले, और मिले ऐसा नहीं सोचना हैं। 
 
आरती - इस यात्रा से मुझे तर्क-वितर्क के आगे बढ़ने की सीख मिली है। “ऐसा क्यूँ-वैसा क्यूँ” इस तरह की सोच में कुछ फायदा नहीं। अच्छे कर्म करे, आत्मसमर्पण समझे और कृतज्ञता पूर्ण रहे। 

तृप्ती - आपकी बातें सुन ऐसा लग रहा है की बैठे बैठे मैंने परिक्रमा कर ली। 

राहुल (दर्शकों के कुछ प्रश्न रखते हुए ) - यात्रा से लौटे 1-1.5 महीने हो गए। आपको जीवन में क्या बदलाव नज़र आ रहा है? आप बाहरी दुनिया में निरंतर पिछले 2 दशकों से सेवा का काम करते आये है। अंदरूनी प्रगति के लिए विपश्यना साधना  का भी अभ्यास करते हैं। अब ये परिक्रमा की एक और साधना जुड़ गयी उस कड़ी में। क्या आपकी अंदर की इस यात्रा से बाहर के काम पर भी कुछ असर पड़ेगा?

गोपाल - अंदर और बाहर का परस्पर सम्बन्ध गहरा है। मैं जब साधना करता हूँ, तो मुझे वो और बलशाली बनाती  है, जिससे मैं  बाहर का काम और प्रेमपूर्वक एवं कुशलतापूर्वक कर सकूँ। ग्रामविकास का कार्य हो, चाहे डिसेबिलिटी का, अगर आपके अंदर शक्ति नहीं होती, तो आप सेवा नहीं कर सकते। खासकर जो सामाजिक कार्यों से जुड़े हैं , वो देखेंगे की आपकी ऊर्जा क्षीण होती जाती है, वह आनंद का भाव नहीं होता काम में। यात्रा में बहुत ऐसे क्षण मिले जिसने मुझे बलवान बनाया है। गांव में इतनी गरीबी और दुःख देखा है, उनकी रोज़ी- रोटी और स्वास्थ्य सम्बन्धी कठिनाइयों का अध्ययन किया, उन ग्रामवासियों के लिए उनके साथ मिल कर क्या कर सकता हूँ , यह सवाल मेरे मन में अब प्रबल हैं। इस पर काम करने के लिए, समता और क्षमता दोनों सहायक होंगी। 

तृप्ति -  मुझे परिक्रमा किये तक़रीबन 1.5 साल हो गए। जब यात्रा पर निकली  थी, तो मेरे पास  बताने के लिए कई कारण हुआ करते थे। इन समय में, मुझे ऐसा आभास कई बार हुआ, की जो मैं कारण बोलती हूँ , वह परिपूर्ण नहीं है। सच पूछे तो अब मैं और कम जानती हूँ, की परिक्रमा मैंने क्यों ली, और में बहुत संतुष्ट हूँ अब इस " ना जानने " से। बात करे बदलाव की, तो जीवन में शायद सूक्ष्म, लगभद अदृश्य रूप से बदलाव का अनुभव होता है।  पहले सब कुछ योजना तहत करने की आदत थी, अब अनिश्चित्ता को बहुत हद तक स्वीकार लिया है, एक गहरा विश्वास है 
जीवन-धारा पर, की इस संसार की एक प्रज्ञा है, जो मेरी छोटी सीमित बुद्धि से बहुत ऊपर है। उसमे विश्वास करना,  समर्पण का भाव ग्रहण करना - यहाँ सब में सीख रही हूँ। उसके अलावा और मैत्री  आचरण में कैसे लाऊ?  जब रोज़  20-30 कि.मी. चलो और पैरो में छाले पड़ जाए, ऐसे वक़्त अगले दिन उठकर फिर वही लम्बी यात्रा - इसकी शक्ति एवं दृढ़ता औरों के प्रेम से ही मुझे मिलती थी। तो वह प्रेम और करुणा का भाव यहाँ शहरी वातावरण में कैसे अपने भीतर लाऊ, किसी औरोँ का साहस दे सकूँ, ये सवाल मेरे लिए और अहम्  हो गया है।  

 à¤°à¤¾à¤¹à¥à¤² - कई दर्शक प्रभावित है ओजस्वी के पालनपोषण से -- जैसे आपने उसे बड़ा किया है। और जानना चाहते है यात्रा से उसमे क्या बदलाव आया हैं ?

आरती - बहुत सारे छोटे-छोटे बदलाव आये है ओजस्वी में।  एक तो की इच्छा-शक्ति बहुत बढ़ गई हैं। जब कभी अब वह हताश होती है, उसे याद आते है वह दिन जब 35 कि.मी. अँधेरे में टोर्च की रौशनी में हम चले, इतनी कठिनाई से गुज़रे। उसके सामने रोज़मर्रा की कठिनाइयाँ बहुत छोटी लगती हैं।  एकदम से नहीं समझ आता पर अंतर्मन में ये बदलाव बहुत पक्के हो जाते हैं। उसके अलावा, जैसा उसने कहा शिकायत की आदत बहुत कम हो गई है, जो जैसा मिले उसे स्वीकार करना सीख रही हैं। हम सबको अब, छोटी चीज़ो में ख़ुशी पाना आसान हो रहा हैं।  उसकी संवेदनशीलता बढ़ी है। एक कृतज्ञता और आभार का भाव आया है, जैसे की कई बार हम भोजन नहीं पाते थे, पर बच्ची है तो इसे तो कोई भी अपने घर ले जाता भोजन के लिए।  एक दिन भी इसे दोपहर का भोजन छोड़ना नहीं पड़ा।  जिसके घर जाती भोजन करने, पहले उनके घरों में, उनकी मंगल कामना की प्रार्थना करती।  हम भी उससे ये सीखे हैं। 

राहुल - किसी ने अच्छा ही कहा है , " बच्चा एक पुरुष का पिता होता है" अर्थात हम बच्चों से कितना सीखते हैं ।  

राहुल - एक आख़िरी सवाल , जो हमारे मित्र यात्रा के इच्छुक है, उनके लिए आपका कोई संदेश?

गोपाल - आपके मन में अगर यात्रा का विचार आया है, तो बहुत खुशकिस्मती की बात है क्योंकि इसका मतलब है माँ नर्मदा की कृपा-दृष्टि आप पर है। क्योंकि यह  यात्रा कठिन है, तो विचार आना ही काफी बड़ी बात है।  स्वयं से जुड़ने की, एक आध्यात्मिक यात्रा से काम नहीं है ये। इस विचार को अपना काम करने दे, और इसकी ओर बढे। माँ नर्मदा तो बाँहें खोले आपका इंतज़ार कर ही रही है। और हाँ, शारीरिक सेहत पे भी गौर करें।

आरती - अंदर से अगर एक गहरी पुकार हो, तो आप ज़रूर जाइये, बहुत कुछ सीखने को है इस यात्रा में। 

इस बीच, गोपाल ने यह भी विचार ज़ाहिर किया की अब उनका इरादा है की जो नर्मदा के आस-पास गांव में परेशानियाँ है, उस विषय पर, गांववासियों के साथ मिल कर कुछ काम करें। वह इसके हेतु , ऐसे सामान विचार रखने वाले लोगो से जुड़ने के हेतु भी उत्सुक हैं। 

इस संवाद का वक़्त ख़त्म हो चला था, और जैसे की राहुल ने कहा की कार्यक्रम भले ही काल-खंड में सीमित है, पर यात्रा की न कोई शुरुवात होती है, और न ही अंत। जीवन एक परस्पर यात्रा नहीं तो और क्या हैं?  बहुत-बहुत धन्यवाद आपका, इस यात्रा में साथ जुड़ने के लिए।